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कविता

बुरे विचारों से बचने का उपाय

सर्वेंद्र विक्रम


इतना शोर कि ठीक सुनाई नहीं देता था फिर भी
हर आवाज में शिकायत कि उसका संदेश
जानबूझकर डुबोया जा रहा है लुगदी के अथाह सागर में

लेकिन कइयों की चुप्पी के पीछे सिर्फ डर ही नहीं था
खतरनाक भी हो सकता है बोलना

धीरे धीरे आदत भी पड़ जाती है कई चीजों की
कौन बोलता है ताकत के सामने
न वाम न दक्षिण न पूर्व न पश्चिम में

कठपुतलियों का तमाशा चल रहा था
जिसमें कुछ लोग जनतंत्र को नपुंसक बता रहे थे
बड़े विचारक आँखें मूँदे मुँह उठाए ऊपर की ओर ताक रहे थे
या बहाना कर रहे थे उधर न देखने का

विचारकों की कई प्रजातियाँ थीं
एक जो किसी महामारी के विशेषज्ञ थे
एक जिनका किसानों की यातना के बारे में बड़ा शोध
एक जिन्होंने हाशिए पर लोगों के अधिकारों के बारे में पढ़ा लिखा
एक स्त्रियों और बच्चों के जानकार
सबका दावा था उनके पास थीं दुर्लभ कहानियाँ
उनकी खूबी थी राजनीतिक रूप से सही होना और अतिविशेषज्ञता
इससे साफ साफ कहने से बचा जा सकता था

इस तरह सबकी अपनी अपनी सूचियाँ
सबके अपने अपने पसंदीदा विचारक
जिनकी आवाज एक ओर ध्यान से सुनी जाती थी
दूसरी ओर उस पर नजर भी रखी जाती थी
निरंतर कहा जाता था कि विचारों को दबाया न जाय
लेकिन कुछ ऐसा इंतजाम हो जाय कि लोग सुनें तो,
लेकिन पूजा न करने लग जाएँ
विचारक को सुना तो जाय गुलाम न हुआ जाय
मन बहलाने के लिए कोई खेल या फैशन चैनल चुना जाय

फिर भी
बुरे विचारों से बचने का नहीं था कोई निश्चित उपाय
वे अचानक उग आते और डराने लगते
 


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